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Mar

किसान संगठनों ने की आय की गारंटी और खेती में पारिस्थितिक स्थिरता (टिकाऊ खेती) की मांग की

लोक सभा चुनाव से पहले सभी राजनीतिक दलों को सौंपी मांगों की सूची

कहा, “जल, जंगल, बीज और जमीन से छीने जा रहे किसानों के हक को तुरंत रोका जाए”

पार्टियों को चेतावनी दी गई कि खेती और किसानों की नीतियों के आधार पर ही
मिलेंगे वोट

नई दिल्ली, 6 मार्च 2014: लोक सभा चुनाव से ठीक पहले देश के लाखो किसानों
का प्रतिनिधित्व करने वाले 100 से अधिक किसान संगठनों ने राजनीतिक दलों
को अपनी मांगों की लिस्ट सौंपी है. सभी बड़ी और प्रमुख किसान यूनियनों ने
भी इन मांगों का समर्थन किया है. साथ ही, किसानों की उपेक्षा करने के
जिम्मेदार राजनीतिक दलों को आड़े हांथों लेते हुए इस बात पर भी क्षोभ
जताया गया है कि किसान-विरोधी नीतियों की वजह से खेत एवं जीविका प्रभावित
हुई है. सिर्फ उद्योगों को ही बढ़ावा देते रहने से देश में किसानों को
भारी विस्थापन का भी सामना करना पड़ा है.

किसान नेताओं ने कहा कि वोटिंग सबसे ज्यादा ग्रामीण भारत में होती है अतः
पार्टियों के चुनावी वादों के विश्लेषण के बाद वो किसानों को अपना मतदान
करने के लिए प्रभावित करेंगे. किसानों के इन प्रतिनिधियों ने इस बात पर
जोर दिया कि सभी खेतिहर परिवारों की एक न्यूनतम आय तय होनी चाहिए. उनकी
प्रमुख मांगों में कहा गया है कि जमीन, जंगल और बीज ग्रामीण समुदायों के
नियंत्रण में रहने चाहिए. निगमों द्वारा मुनाफाखोरी के लिए इनका इस्तमाल
या एकाधिकार बंद होना चाहिए. खेती में पारिस्थितिक स्थिरता को भी
सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए. किसान यूनियनों और नागरिक समाज समूहों
की साझा मांगों में कहा गया है कि फिल्ड ट्रायल की आड़ में खुली हवा में
जी.एम. बीजों के परीक्षणों पर रोक लगनी चाहिए.

भारतीय किसान यूनियन और इंडियन कोर्डिनेशन कमिटी आफ फार्मर्स युनिअंस के
युदवीर सिंह ने कहा कि पूरे देश के लिए यह शर्म की बात है कि औसताना एक
अन्नदाता हर आधे घंटे आत्महत्या कर रहा है. हर दिन लगभग 2300 किसान खेती
छोड़ रहे हैं. तथाकथित कृषि विकास और हरित क्रांति के इतने वर्षों के
बावजूद अधिकांश भारतीय किसानों की औसत मासिक आय उनकी औसत मासिक व्यय से
काफी कम है. किसान परिवारों को मुश्किल से दो वक़्त की रोटी नसीब होती है.
उन्होंने कहा कि मानव इतिहास का सबसे बड़ा विस्थापन भारतीय कृषि में
देखने को मिल रहा है क्यूंकि किसानों के हितों का हनन हो रहा है और
प्रतिकूल सार्वजनिक नीतियों ने उनके लिए संकट की स्थिति पैदा कर दी है.
“हमें केवल उत्पादन और उत्पादकता के रूप में कृषि विकास को नहीं मापना
चाहिए. समय आ गया है जब हम किसानों की भलाई और उनके शुद्ध लाभ एवं आय पर
गंभीरता से विचार कर ठोस कदम उठाएं. इसी सन्दर्भ में हम किसानों की एक
न्यूनतम आय की मांग कर रहे हैं. कृषि आय आयोगों का गठन हो तथा किसानों की
आय का आकलन किया जाए.”

भारतीय कृषि तकनीकियों और कृषि नीतियों पर प्रहार करते हुए एलायन्स फॉर
सस्टेनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर की कविता कुरुगंती ने कहा कि उच्च
पदों पर बैठे लोगों में बुद्धि और दूरदृष्टि का अभाव है जिस कारण वे सोच
ही पाते कि कैसे कृषि का विकास हो और कैसे हमारे किसान समृद्ध हों. “जब
हमारा उत्पादक आधार गिरेगा तो कैसे हमारे खेत और कृषि सुरक्षित रह
पायेंगे? आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार हमारे देश की 25% भूमि रासायनिक और
वर्तमान पानी गहन प्रौद्योगिकियों के कारण प्रभावित हो रही है. यही दर
रहा तो अगले 20 वर्षों में हमारे भूजल संसाधन का 60% हिस्सा गंभीर स्थिति
में पहुंच जाएगा. पंजाब जैसे स्थानों में क्षेत्र का अधिकांश हिस्सा
डार्क और ग्रे जोन के तहत पहले से ही है. हमारी बीज विविधता पर बुरी तरह
से असर हो रहा है. कीटनाशकों और विषाक्त प्रौद्योगिकियों हमारे भोजन सहित
सब कुछ दूषित कर रही हैं. हमारे भोजन और खेती प्रणाली इस व्यवस्था से
नहीं चल सकते. अपनी कृषि को हमें एक समयबद्ध ढंग से भारी पैमाने पर
पारिस्थितिक खेती की दिशा में ले जाना होगा. हमें राजनीतिक दलों से भरोसा
चाहिए कि उनके द्वारा पारिस्थितिक खेती को बढ़ावा दिया जाएगा.”

पश्चिम ओडिशा कुर्शक संगठन समन्वय समिति के सरोज मोहंती ने कहा कि भूमि
और बीज जैसे संसाधनों को किसानों से नहीं छिना जा सकता. उन्होंने कहा कि
विभिन्न राज्य सरकारे किसान विरोधी नीतिओं के तहत भोले भले किसान
परिवारों से साम-दाम-दंड-भेद अपना कर उनके प्राकृतिक संसाधनों पर अपना
कब्ज़ा जमा रही हैं और उपजाऊ जमीनों का जबरन अधिग्रहण कर रही हैं.

बीज के महत्व पर बल देते हुए जी.एम.फ्री इंडिया गठबंधन के पंकज भूषण ने
कहा कि विभिन्न फसलों पर निगमों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने एकाधिकार
ज़माना शुरू कर दिया है जिसके खिलाफ संगठन राजनितिक दलों को आगाह कर रहा
है. उदाहरण के तौर पर मोनसेंटो कम्पनी अपना अधिकार क्षेत्र बढाती जा रही
हैं और भारतीय किसानों को भी अब अपना गुलाम बनाना चाह रही हैं. उन्होंने
आश्चर्य व्यक्त किया कि सभी प्रतिकूल परिणामों के बावजूद कैसे पर्यावरण
मंत्री जी.एम. फसलों के क्षेत्र परीक्षण की अनुमति दे सकते हैं.

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